संकट के दौर में सुशीला कार्की को मिली नेपाल की बागडोर, बनीं अंतरिम प्रधानमंत्री

  • Post By Admin on Sep 12 2025
संकट के दौर में सुशीला कार्की को मिली नेपाल की बागडोर, बनीं अंतरिम प्रधानमंत्री

काठमांडू : नेपाल इन दिनों जेन-जेड आंदोलन और विरोध प्रदर्शनों की वजह से राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के इस्तीफे के बाद हालात और तनावपूर्ण हो गए। इसी बीच प्रदर्शनकारियों की मांग पर देश की पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया है। शुक्रवार देर शाम राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने उन्हें शपथ दिलाई।

73 वर्षीय सुशीला कार्की नेपाल की राजनीति और न्यायपालिका दोनों में ही एक अहम नाम रही हैं। उनका जन्म 7 जून 1952 को बिराटनगर में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा यहीं से पूरी करने के बाद उन्होंने 1972 में स्नातक की डिग्री ली और आगे की पढ़ाई के लिए भारत का रुख किया। 1975 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की।

भारत से गहरे जुड़ाव को लेकर वे अक्सर भावुकता जताती रही हैं। उनका घर भारत-नेपाल सीमा से केवल 25 मील दूर है और बचपन में वे अक्सर बॉर्डर मार्केट जाया करती थीं।

कार्की ने 1978 में त्रिभुवन विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की और अगले साल बिराटनगर में वकालत की शुरुआत की। 1985 में उन्होंने धरान के महेंद्र मल्टीपल कैंपस में सहायक अध्यापक के रूप में भी सेवाएं दीं।

उनके करियर का महत्वपूर्ण मोड़ 2009 में आया, जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट का अस्थायी न्यायाधीश बनाया गया। 2010 में वे स्थायी न्यायाधीश बनीं। कड़ी मेहनत, ईमानदारी और निडर छवि ने उन्हें न्यायपालिका में अलग पहचान दिलाई।

2016 में वे नेपाल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनीं और 11 जुलाई 2016 से 6 जून 2017 तक इस पद पर रहीं। हालांकि उनके कार्यकाल में विवाद भी कम नहीं रहे। 2017 में सरकार ने उन पर पक्षपात और कार्यपालिका के मामलों में हस्तक्षेप का आरोप लगाकर महाभियोग प्रस्ताव पेश किया। निलंबन के बावजूद जनता ने उनके पक्ष में आवाज उठाई और सुप्रीम कोर्ट ने संसद की कार्रवाई रोक दी। दबाव के चलते प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। इस प्रकरण ने उन्हें निडर और स्वतंत्र न्यायाधीश के रूप में स्थापित किया।

आज, जब नेपाल राजनीतिक संकट में है, सुशीला कार्की को देश की बागडोर सौंपी गई है। उनकी नियुक्ति को न्यायपालिका की स्वतंत्रता और साहसिक नेतृत्व की जीत माना जा रहा है।