भारतीय स्वतंत्रता एवं संस्कृति का सूर्यपिंड महर्षि दयानंद सरस्वती
- Post By Admin on Feb 11 2025

डॉ. सुधांशु कुमार
201 वीं जयंती पर विशेष
तत्कालीन भारतीय क्षितिज की अनन्य परिघटना - स्वामी दयानंद सरस्वती ! महान विचारक, आलोक स्तंभ एवं दया के प्रतिमूर्ति ! उनकी ज्ञान पिपासा ऐसी, कि वर्षों तक सद्गुरु की तलाश में भटकते रहे और तब तक तलाश जारी रखी, जब तक वह मिल न गये। भारत माता के प्रति भक्ति ऐसी, कि उन्हें गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए गांव-गांव, शहर-शहर जनजागरण का बिगुल फूंकते रहे, अलख जगाते रहे और एक ऐसा सूर्यपिंड बनकर उभरे, जिनसे नाना साहब, अजीमुल्ला खाँ, तात्या टोपे, बाबू कुँवर सिंह जैसे दर्जनों ग्रह - उपग्रह उनसे ऊर्जा व मार्ग दर्शन ग्रहण कर, अंग्रेजों को मार भगाने का संकल्प लेते। पराक्रम ऐसा, कि सांस्कृतिक पुनरुद्धार के क्रम में काशी के पाखंडी पंडितों की खबर लेते समय उनके कई गुंडों के दाँत एक साथ खट्टे कर दिये और दयालुता ऐसी, कि दूध में कांच और संखिया मिलाकर जान मारने वाले रसोइया जगन्नाथ को भी माफ कर दिया ! ऐसी दया, करुणा और प्रेम की प्रतिमूर्ति, संस्कृति के पुनरुद्धारक महर्षि दयानंद सरस्वती ही हो सकते थे। जब संपूर्ण विश्व को अपने ज्ञान के आलोक से आलोकित करनेवाले विश्वगुरु भारत भूमि पर पाप, पाखंड, अनाचार, अशिक्षा, व्यभिचार का अंधकार गहराने लगा तभी, उसका सीना चीरता हुआ प्राची में जो सूर्य उदित हुआ, वह महर्षि दयानंद सरस्वती ही थे ! राम, कृष्ण और बुद्ध के बाद वह दयानंद ही थे जिन्होंने 'दधीचि' की तरह भारत माता को आतताइयों के चंगुल से मुक्त करने हेतू अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया ।
12 फरवरी 1824 की सुबह गुजरात के 'टंकारा' गांव की पुण्य-भूमि का मौसम कुछ अधिक ही मनोहारी हो गया, क्षितिज कुछ अधिक ही स्वर्णिम दिखने लगा, वसंत कुछ अधिक ही सुगंधि फैलाने को आतुर हो उठा और नैराश्य के गहन अंधकार में डूबी भारत माता के मुख पर आशा की किरणें छिटकने लगीं, क्योंकि उसी दिन पिता करशन लाल जी तिवारी और माता अमृत बाई के आंगन में एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के इस बालक का नाम शिवभक्त माता-पिता ने मूलशंकर रखा! पांचवें वर्ष में पिता ने अक्षर ज्ञान दिया। आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार। चौदहवें साल में शिवरात्रि के दिन घटी घटना ने किशोर मूलशंकर की जीवन-धारा व दृष्टि ही बदल दी। आडंबर एवं मूर्तिपूजा के प्रति विक्षोभ उत्पन्न कर दिया। रात्रि - जागरण के क्रम में किशोर मूलशंकर ने देखा कि शिवलिंग पर एक चूहा चढ़ -उतर रहा है और वहाँ रखे प्रसाद को खा रहा है ! यह देख, मूर्ति पूजा की निरर्थकता मन में घर कर गई। मूलशंकर ने समाज में व्याप्त आडम्बर के समूल नाश का संकल्प लिया। यह आसान न था, इसकी पुण्य वेदी उनके संपूर्ण जीवन का बलिदान मांग रही थी। इसी बीच एक और घटना घटी। छोटी बहन और चाचा की मृत्यु हैजा से हो गई। वह भीतर तक हिल गये। जिस चाचा ने उन्हें गोद में खेलाया था, जिस बहन के साथ दिन - रात खेलते थे, उनकी मृत्यु ...! यह घटना उन्हें झकझोर गई, साथ ही उनकी मानस भूमि में जीवन - मृत्यु से संबंधित शाश्वत प्रश्न अँकुरित होने लगे। दृष्टि जीवन - मृत्यु के गूढ़ रहस्यों को जानने-समझने पर अटक गई।...जीवन - मृत्यु, सामाजिक- धार्मिक आडम्बर, गुलामी, अंग्रेजों का अत्याचार, भारतीय सनातन संस्कृति की दुरावस्था आदि प्रश्नों और समस्याओं के समाधान का दृढ़ संकल्प उन्होंने लिया। अपने इस महान संकल्प की पुण्य-वेदी पर अपना संपूर्ण जीवन न्योछावर करने का दृढ़ निश्चय वह कर चुके थे। उनके इस निश्चय का आभास पिता करशन जी को हो गया। उनका वात्सल्य बवंडर में था ! उन्होंने पुत्र को परिणय सूत्र में बांधने का निर्णय लिया। तैयारियां शुरू हुई। शहनाई बजने को ही थी, कि मूलशंकर चुपके से मध्य रात्रि में अंतहीन सफर को निकल पड़े। पंछी निरभ्र आकाश को अपने पंखों से नापने को पिंजरे से उड़ चुका था।
मूलशंकर घर से तो निकल पड़े, किंतु जाएँ कहाँ ? सर्वप्रथम सुयोग्य गुरु की तलाश शुरु हूई। कुछ भटकने के उपरांत संत पूर्णानन्द के पास पहुंचे। उन्होंने उन्हें सन्यास दिया और उसी दिन से मूलशंकर को नया नाम मिला - स्वामी दयानंद सरस्वती। अब तक सदगुरु की तलाश पूरी न हुई थी-'' सन्यास बाद स्वामी जी घोर तपश्चर्या / सच्चे गुरु जी की तलाश रही थी उनकी दिनचर्या ।''इसी क्रम में गुजरात से विंध्याचल होते हुए हरिद्वार पहुंचे । वहां तीर्थ, जंगल, पहाड़, तपोवन एवं तपस्थली सभी जगह सुयोग्य गुरु की तलाश की। मन में कसक, आत्मा व्याकुल थी। इसी क्रम में कई पाखंडियों ने उन्हें अपने वाग्जाल में फँसाने की चेष्टा भी की, किंतु पारस पर पत्थर का जादू नहीं चल सका। तभी एक दिन किसी योगी ने सिद्ध साधक विरजानन्द का पता दिया। वह अविलंब उनसे मिलने मथुरा पहुंच गये। वहां पहुंच, प्यासे को पानी, चातक को स्वाति, सीप को मोती मिला ! अंधगुरु के अंतर्चक्षु ने प्रथम परिचय में ही सुपात्र को पहचान लिया - ''सदगुरु की अनुमति मांग दयानंद उनके शिष्य बने /आगे चलकरके यही शिष्य भारत के भविष्य बने।'' गुरु के निर्देशन में इन्होंने कठोर तप व योगाभ्यास किया। इसी क्रम में एक दिन तत्व ज्ञान मिला। प्यासी आत्मा तृप्त हुई। मन असीम आलोक से भर गया। अब बारी थी संपूर्ण भारत में व्याप्त पाखंड, शोषण, अज्ञान व गुलामी के अंधकार दूर करने की, किंतु गुरु दक्षिणा दिए बिना अपने कर्तव्य पथ पर आरूढ़ कैसे हो सकते थे। गुरुदक्षिणा में एक मुट्ठी लौंग लेकर पहुंचे गुरु जी के पास। गुरु की आँखें भर आईं। छोटा सा चक्षु - गागर भावनाओं के समंदर को संभाल न सका। अश्रु-अमृत छलक पड़ा। रुंधे गले से गुरु ने गुरुदक्षिणा स्वीकार करते हुए कहा, भारत की भव्य ईमारत की सारी बुनियादें हिल चुकी है... आपसी फूट एवं कुरीतियों की कारा में सारा समाज बंदी है ! सनातन संस्कृति के सरोवर पर मगरों ने कब्जा कर रखा है- ''हे दयानंद इस दुखी देश का तुम उद्धार करो /मँझधार में है बेड़ा, बेटा तुम बेड़ा पार करो।'' गुरु की आज्ञा पाकर वह चल पड़े अपने आलोक से दिगदिगन्त को आलोकित करने ।
अब दयानंद बिना रुके और थके विचार क्रांति का बिगुल फूँकने लगे । लोगों को उनके धर्म के वास्तविक रूप और कर्तव्य का बोध कराते हुए उन्हें पाखंडी पंडितों से सावधान करने लगे। मंदिरों पर व्यभिचारियों का कब्जा था, जनता पिस रही थी, महंत विलास में लिप्त थे- ''रमणियाँ उतारा करती थी आरती महंतों की / वो दृश्य देखती रहती थी टोली श्रीमंतों की !'' इन सबके खिलाफ उन्होंने धुँआधार सभाएं की , जनजागृति अभियान चलाया, वैचारिक क्रांति का शंखनाद कर दिया, मूर्ति पूजा का विरोध, वेदपाठ पर बल देने लगे। धीरे-धीरे उनका वैज्ञानिक तर्क रंग लाने लगा। उनके वैदिक झंडे के नीचे हुजूम उमड़ने लगा। वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना का मार्ग प्रशस्त होने लगा। उनके इस प्रयास से- ''मच गया तहलका अभिमानी धर्माधिकारियों में / भारी भगदर मच गयी सभी पंडित पुजारियों में।'' इसी क्रम में अपने शिष्यों के आग्रह पर बंबई गये और 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की, साथ ही इसी वर्ष विश्व साहित्य को उनकी अमूल्य कृति 'सत्यार्थ प्रकाश' मिला। तदुपरांत पंजाब होते हुए जोधपुर जा पहुंचे। वहां का राजा जसवत सिंह बहुत ही विलासी था। वह अपने दरबार की वेश्या के चंगुल में फँस चुका था। एक दिन दयानंद ने उस वैश्या की पालकी को कंधा लगाते हुए राजा को देख लिया । स्वामी जी ने राजा को फटकार लगाई । राजा ने तो शर्मिंदगी के साथ माफी मांगी, किंतु वैश्या इंतकाम की आग में जलने लगी। दूसरी ओर स्वामी जी के जनजागरण अभियान से ब्रिटिश हुकूमत के भी कान खड़े हो चुके थे! वह ताक में थी। उसे यह अच्छा अवसर लगा। उसने वैश्या के साथ मिलकर साजिश रची और स्वामी जी के रसोइया जगन्नाथ को धन का लालच देकर उनके दूध में संखिया और कांच का चूर्ण मिलवा दिया। दूध पीते ही तबियत बिगड़ने लगी। दयानंद जी को शंका हुई, जगन्नाथ को बुलाकर पूछा, उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी, विष अपना काम कर चुका था । देश विदेश के हकीम - वैद्य आये कितु परिणाम शून्य..! अंत में अजमेर में 30 अक्टूबर 1883 ई. को दीपावली की अमावस की रात को यह प्रकाश स्तंभ तिरोहित हो गया ।
सांस्कृतिक पुनर्जागरण, आडंबरों का विरोध, स्वतंत्रता आंदोलन का सूत्रपात, सबके केंद्र में थे महर्षि दयानंद सरस्वती। भारतीय कांग्रेस के भूतपूर्व अध्यक्ष, गांधीवादी विचारक पट्टाभि सीतारमैया ने महर्षि दयानंद सरस्वती को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रस्थान बिंदु माना है- ''गांधी जी राष्ट्रपिता हैं पर महर्षि दयानंद सरस्वती राष्ट्र पितामह हैं।'' लाला लाजपतराय ने उन्हें अपना गुरु माना- ''स्वामी दयानंद सरस्वती हमारे गुरु हैं, उन्होंने हमें विचारना, बोलना और कर्तव्य पालन करना सिखाया।'' वहीं नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी उन्हें ''आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता '' माना, जिसका समर्थन करते हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल लिखते हैं- ''भारत की स्वतंत्रता की नींव वास्तव में महर्षि दयानंद सरस्वती ने डाली थी।'' आज उनकी जयंती के अवसर पर उन्हें कोटिशः नमन ।
लेखक शिक्षाविद, स्तंभकार एवं व्यंग्यकार हैं।