जयंती विशेष: हजारी प्रसाद द्विवेदी – हिंदी साहित्य में परंपरा और आधुनिकता के सेतुकार
- Post By Admin on Aug 18 2025

नई दिल्ली : हिंदी साहित्य और भारतीय संस्कृति के इतिहास में हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। 19 अगस्त को जन्मे द्विवेदी केवल एक साहित्यकार नहीं थे, बल्कि वे परंपरा और आधुनिकता के बीच सेतु बनाने वाले युगदृष्टा भी थे। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के छोटे से गांव से निकलकर उन्होंने अपने ज्ञान, विचारधारा और लेखन से हिंदी जगत में अमिट छाप छोड़ी।
द्विवेदी की प्रारंभिक शिक्षा काशी के संस्कृत महाविद्यालय में हुई, जहां उन्होंने 1929 में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष में शास्त्राचार्य की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उनका रुख शांति निकेतन की ओर हुआ, जहां 1930 से उन्होंने हिंदी शिक्षक के रूप में कार्य करना शुरू किया। अगले दो दशकों तक वे अध्यापन कार्य से जुड़े रहे और 1940-50 तक हिंदी भवन, शांति निकेतन के निदेशक भी रहे। इस दौरान उन्हें रवींद्रनाथ टैगोर और आचार्य क्षितिमोहन सेन का सान्निध्य प्राप्त हुआ, जिसने उनके चिंतन और लेखन को और गहराई दी।
1950 में वे वाराणसी लौटे और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष बने। 1952-53 में वे काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष रहे और 1955 में प्रथम राजभाषा आयोग में सदस्य के रूप में राष्ट्रपति द्वारा नामित किए गए। 1960 से 1967 तक पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे और बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में रेक्टर बने। जीवन के अंतिम वर्षों में वे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष भी रहे।
हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक योगदान अत्यंत व्यापक रहा। उन्होंने उपन्यास, निबंध, आलोचना, व्याकरण और इतिहास के क्षेत्रों में गहन प्रभाव छोड़ा। उनके उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारु चन्द्रलेख’, ‘अनामदास का पोथा’ और ‘पुनर्नवा’ हिंदी साहित्य के मील के पत्थर माने जाते हैं। निबंध संग्रहों में ‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’, ‘आलोक पर्व’, ‘कल्पलता’ और ‘विचार प्रवाह’ विशेष उल्लेखनीय हैं। आलोचना के क्षेत्र में उनकी कृतियाँ जैसे हिंदी साहित्य की भूमिका, नाथ सम्प्रदाय, कबीर, सूर-साहित्य और मध्यकालीन बोध आज भी महत्वपूर्ण अध्ययन का विषय हैं।
द्विवेदी की भाषा सरल, प्रांजल और आत्मपरक थी। व्यंग्य का प्रयोग उनके निबंधों को सहज और पठनीय बनाता था। उन्होंने हिंदी गद्य शैली को नया रूप दिया और उसे आधुनिक दृष्टिकोण प्रदान किया। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और बांग्ला भाषाओं के गहन अध्ययन के साथ-साथ इतिहास, दर्शन और संस्कृति पर उनकी पकड़ ने उनके साहित्य को और समृद्ध बनाया। उनका मानना था कि भारतीय संस्कृति स्थिर नहीं, बल्कि लगातार विकसित होती रहती है, और यही उनके लेखन में परंपरा और आधुनिकता के संतुलन के रूप में दिखाई देता है।
उनके योगदान के लिए उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले। 1949 में लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की मानद उपाधि दी, 1957 में भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया, पश्चिम बंगाल साहित्य अकादमी ने उन्हें टैगोर पुरस्कार दिया और 1973 में ‘आलोक पर्व’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।
हजारी प्रसाद द्विवेदी का निधन 19 मई 1979 को हुआ, लेकिन उनके विचार, साहित्य और दृष्टिकोण आज भी हिंदी साहित्य और भारतीय संस्कृति में उतने ही प्रासंगिक हैं। उनकी जयंती केवल एक साहित्यकार की याद नहीं, बल्कि उस युगदृष्टा को नमन करने का अवसर है जिसने परंपरा और आधुनिक चेतना का सुंदर समन्वय स्थापित किया।