उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन ने बदला खेती का स्वरुप, दाल-मसालों ने ली धान-गेहूं की जगह
- Post By Admin on May 05 2025

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में जलवायु परिवर्तन का असर अब खेती के नक्शे पर साफ़ नजर आने लगा है। बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा और जल संकट के चलते किसान अब पारंपरिक फसलों जैसे धान, गेहूं और आलू से मुंह मोड़कर दालों और मसालों की ओर रुख कर रहे हैं। क्लाइमेट ट्रेंड्स की ताज़ा रिपोर्ट 'पहाड़ों में जल और ताप तनाव' में यह खुलासा हुआ है।
रिपोर्ट के मुताबिक, बीते एक दशक में उत्तराखंड में खेती की ज़मीन 27% तक सिमट चुकी है। खासकर आलू की पैदावार में भारी गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2020-21 में जहां राज्य में आलू का उत्पादन 3.67 लाख मीट्रिक टन था, वहीं 2023-24 में यह घटकर मात्र 1.07 लाख मीट्रिक टन रह गया। आलू की खेती का क्षेत्रफल भी इस अवधि में लगभग 10 हजार हेक्टेयर कम हो गया।
मौसम और जानवर—दोनों से जूझ रही पहाड़ी खेती
उधम सिंह नगर स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के डॉ. अनिल कुमार बताते हैं कि “पहाड़ों में अब वैसी बारिश और बर्फबारी नहीं हो रही, जिससे आलू जैसी फसलें प्रभावित हो रही हैं।” खेतों में नमी टिकना मुश्किल हो गया है। वहीं, लोक चेतना मंच के अध्यक्ष जोगेंद्र बिष्ट कहते हैं कि जंगली जानवर, विशेषकर सूअर, रातों को फसल बर्बाद कर देते हैं, जिससे किसानों का नुकसान और बढ़ जाता है।
चरम मौसम से 44 हजार हेक्टेयर भूमि पर असर
भारत के मौसम आपदा एटलस के अनुसार, वर्ष 2023 में उत्तराखंड में 94 दिनों तक चरम मौसम की स्थिति रही, जिससे लगभग 44,882 हेक्टेयर कृषि भूमि प्रभावित हुई। तापमान में हर साल औसतन 0.02 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है, जो लंबे समय में फसल चक्र को पूरी तरह प्रभावित कर सकती है।
कम पानी, कम लागत वाली फसलें बनीं नई राह
इन प्रतिकूल हालातों में गहत, भट्ट, कुल्थी, चना और अरहर जैसी देशी दालें किसानों के लिए आशा की किरण बनकर उभरी हैं। ये फसलें कम पानी में भी अच्छी उपज देती हैं और पोषण से भरपूर हैं। मसालों की खेती में भी ज़बरदस्त उछाल आया है—हल्दी का उत्पादन 122% बढ़ा है और मिर्च की खेती में 35% की बढ़त हुई है। मसालों की खेती का कुल रकबा भी 50% तक बढ़ चुका है।
परंपरागत 'बारानाजा' प्रणाली लुप्त, लेकिन बहुफसली प्रयोग जारी
राज्य की पारंपरिक बारानाजा बहुफसली प्रणाली अब इतिहास बनती जा रही है, लेकिन किसान अब आधुनिक बहुफसली रणनीतियों को अपना रहे हैं। केंद्र सरकार के आत्मनिर्भरता मिशन और बाज़ार से मिल रहे सहयोग से किसान दलहन व मसालों की खेती में रुचि ले रहे हैं।
जोगेंद्र बिष्ट के अनुसार, “अब किसान काली सोयाबीन, कुल्थी और मक्का जैसी मौसम-अनुकूल फसलों की ओर बढ़ रहे हैं, जिनकी बाज़ार में मांग भी लगातार बढ़ रही है।”
बदलाव ज़रूरी, लेकिन संभावनाओं से भरपूर
क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट साफ़ संकेत देती है कि उत्तराखंड की पहाड़ी खेती अब एक निर्णायक मोड़ पर है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के बीच, लचीली, कम पानी में उपज देने वाली फसलों की ओर यह बदलाव न सिर्फ खाद्य सुरक्षा के लिहाज़ से अहम है, बल्कि किसानों की आजीविका को भी नया संबल दे सकता है।
@Climateकहानी