अभिलाषाएँः मन की आत्मजाएँ

  • Post By Admin on Jan 02 2023
अभिलाषाएँः मन की आत्मजाएँ

अभिलाषाएँ… मन की आत्मजाएँ हैं। जबतक मन उर्वर होता है, अभिलाषाएँ जनता रहता है। मन की माटी से उपजने वाली हर भावना क्षणभंगुर होती है, अस्थिर होती है। क्योंकि मन स्वयं ही अस्थिर है, अतः मन के व्युत्पन्न उसके आनुवंशिक गुणों से परिपूर्ण रहते हैं। इस मन के लोक में दूरतक केवल दरिद्रता है क्योंकि यह केवल अभाव को देखता है। इसलिए अभिलाषाएँ इससे नित्य ही फूटती रहती हैं और मन जितना संग्रह करता है उतना ही दरिद्र होता चला जाता है।

मन तृप्त कब होता है?

तृप्त होने के लिए मन आत्मा पर निर्भर है और तृप्ति मन की नहीं, आत्मा की उपज है। तृप्ति की प्रवृत्ति आत्मा को परिभाषित करती है। यह एक बार मन को छू ले तो मन स्थिर हो जाता है, शांत हो जाता है। उसकी उर्वरता नष्ट हो जाती है।

मन जबतक जागृत रहता है तबतक हम आत्मिक अनुभूतियों को ग्रहण नहीं कर सकते। विचारों के कोलाहल में हम आत्मा के मौन को नहीं सुन सकते। मन जबतक जागता है तबतक जगाता है। इसलिए अपनी पूरी दिनचर्या में ५-१० मिनट ऐसा निकालना चाहिए जब हम मन को कुछ समय के लिये सुला सकें, विचारों से पूर्णतः रिक्त हो सकें, ‘ध्यान’ कर सकें।

आत्मा को जागृत करने का एकमेव मार्ग है ध्यान। इसी से मन शिथिल हो सकता है। अभिलाषाओं को त्यागना मतलब सन्यासी बनना नहीं है। ध्यान का ध्येय इतना ही है कि ‘मन’ मनुष्य पर हावी ना हो। एक सुचारू जीवन के लिए आत्मिक गुणों को जागृत करना अत्यावश्यक है। आत्मिक गुण जैसे धैर्य, ज्ञान, वैराग्य, संतोष, दूरदर्शिता और ध्यान। हम केवल मनुष्य के स्वभाव के आधार पर बता सकते हैं उसके मन का उसपर कितना प्रभाव है क्योंकि जो मन के नियंत्रित है वह अनियंत्रित है।

केवल १० मिनट के ध्यान का अंधकार हमें असंख्य चीज़ें देख सकने में समर्थ कर देता है। जैसे ही हम ध्यानमय होने लगते हैं, मन द्वारा संग्रह की गयी हमारी हर पहचान ढहना शुरू हो जाती है। हम ब्रह्मांड के साथ एक होने लगते हैं, ब्रह्म के साथ एक होने लगते हैं। इस एकत्व को मन सदैव नकारता है। पृथक्करण मन का स्वभाव है और ब्रह्म के आयाम में सबकुछ एक है, अद्वैत है।

- जया मिश्रा ‘ अन्जानी’