गणेश चतुर्थी: प्रथम पूज्य की उत्पत्ति और व्रत की महिमा

  • Post By Admin on Jan 17 2025
गणेश चतुर्थी: प्रथम पूज्य की उत्पत्ति और व्रत की महिमा

माघ कृष्ण चतुर्थी के पावन अवसर पर चंद्रोदय के समय माता पार्वती ने अपने निज शरीर से भगवान गणेश की उत्पत्ति की थी। इन्हें गौरीतनय के कारण "गणेश" कहा गया। भगवान गणेश को मंगल के अधिपति और समस्त विघ्नों के नाशक के रूप में पूजा जाता है। वे सभी देवताओं और मनुष्यों के लिए प्रथम पूज्य माने गए हैं। उनके तेज में कोटि सूर्यों का प्रकाश समाहित है और उनके मस्तक पर स्थित अर्धचंद्र मनोहर छटा बिखेरता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण उन्हें "भालचंद्र" के नाम से भी जाना जाता है।

गणेश चतुर्थी के दिन सनातनी माताएं अपनी संतानों की रक्षा और उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना के लिए गणेश चतुर्थी व्रत का पालन करती हैं। चंद्रोदय के समय भगवान गणेश का स्मरण कर, चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही व्रत का समापन किया जाता है।

गणेश जी को लाल और पीले पुष्प, हरी दूर्वा और हल्दी का मिश्रण अत्यंत प्रिय है। पूजन में कम से कम 108 दूर्वा अर्पित की जाती है। प्रसाद में मोदक, गुड़, तिल के लड्डू, कंदफल, अलुआ, दूध, गुड़ और मिष्ठान अर्पित किए जाते हैं। गणेश जी के प्रति यह श्रद्धा और भक्ति ही उनके भक्तों के जीवन में सुख-समृद्धि और विघ्नों के नाश का कारण बनती है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, माता पार्वती ने स्नान के समय अपने शरीर के उबटन से एक बालक की रचना की और उसमें प्राण डाल दिए। उन्होंने उसे द्वार पर पहरा देने का आदेश दिया। जब भगवान शिव ने प्रवेश करना चाहा, तो बालक ने उन्हें रोक दिया। इससे क्रोधित होकर भगवान शिव ने उसका सिर काट दिया। बाद में माता पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उसे हाथी का सिर लगाकर पुनर्जीवित किया और उसे प्रथम पूज्य का आशीर्वाद दिया।

गोस्वामी तुलसीदास ने "रामचरितमानस" की रचना से पूर्व भगवान गणेश की स्तुति करते हुए लिखा-
गाइये गनपति जगबंदन । संकर सुवन भवानी-नंदन ॥
सिद्धि-सदन, गज-बदन, बिनायक । कृपा-सिंधु, सुंदर, सब-लायक ॥ 
मोदक-प्रिय, मुद-मंगल-दाता । बिद्या-बारिधि, बुद्धि-बिधाता ॥
माँगत तुलसिदास कर जोरे । बसहिं रामसिय मानस मोरे॥

गणेश जी के द्वादश नामों का स्मरण करना विघ्नों का नाश करता है और आयु, कामना और सिद्धियों को पूर्ण करता है:
प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायुःकामार्थसिद्धये ॥

वक्रतुण्ड, एकदन्त, कृष्णपिङ्गाक्ष, गजवक्त्र, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज, धूम्रवर्ण, भालचंद्र, विनायक, गणपति, गजानन, जो व्यक्ति इन नामों का तीनों संध्याओं में पाठ करता है, उसे कभी विघ्नों का भय नहीं होता और वह सभी सिद्धियों को प्राप्त करता है।

यह जानकारी पं. जय किशोर मिश्र द्वारा दी गई है, जिन्होंने सनातन धर्म की इस परंपरा और व्रत की महत्ता को विस्तार से समझाया है। उनका मानना है कि यह व्रत संतान के उज्ज्वल भविष्य और परिवार की समृद्धि के लिए अति महत्वपूर्ण है।