प्रेम को प्रेम ही रहने दो
- Post By Admin on Jun 10 2018
प्रेम सिर्फ़ प्रेम होता है. एक वक़्त के बाद प्रेम आत्मा के साथ शरीर में उतरता ही है. इस बात को चाहे जितना भी झुठला लीजिए सच यही है.
अगर आप प्रेम में हैं तो अपने प्रेयसी/प्रेमी का सामीप्य आपको चाहिए ही होता है. सामान्य भाषा में आप सेक्स कह सकते है मगर प्रेम में सेक्स नहीं लव-मेकिंग होता है.
पता नहीं इस बात को स्वीकार करने में क्या दिक़्क़त है हम भारतीयों को!
ख़ैर उस पर बाद में लिखा जाएगा. आज का मुद्दा कुछ और है.
क्या विवाह के बंधन में बंध जाने का मतलब होता है कि आप को अब जीवन में कोई भी अच्छा नहीं लग सकता?
के आपको विवाह के बाद अपने साथी के अलावा किसी से प्रेम नहीं हो सकता?
तो मैं इस बात को सिरे से ख़ारिज करती हूँ. विवाह के बाद या पहले से प्रेम का कोई ताल्लुक़ नहीं है.
प्रेम कभी भी किसी को भी कहीं भी हो सकता है. ये मन से मन मिल जाने की बात है. प्रेम जब हो रहा होता है तो उस वक़्त मन किसी का पति/पत्नी नहीं होता. वो सिर्फ़ एक आत्मा होता है जिसे किसी दूसरे आत्मा की तरफ़ खिंचाव महसूस हो रहा होता है.
अब ये क्यूँ हो रहा होता इसके हज़ार कारण हो सकते हैं. उन पर अलग से लिखा जाएगा.
हम भारतीय जो ये सोचते हैं कि जिससे शादी हो गया प्रेम भी उसी से हो ही जाएगा. ये सोच सिरे से ग़लत है. कुछ केस में हो भी जाता होगा मगर अधिकांश में वो सामंजस्य बिठाना होता है प्रेम नहीं.
ऊपर से अपना समाज ऐसा है कि शादी के बाद बच्चें हो गये मतलब मुहर लग गया कि अब तो प्रेम हो ही चुका है मगर वो सेक्स हुआ रहता है, प्रेम नहीं.
लेकिन सभ्यता-संस्कृति के नाम पर, सामाजिक संरचना को बनाए रखने के लिए और सो कॉल्ड इज़्ज़त को बचाए रखने के लिए लोग ढो रहें होते हैं रिश्ते को.
ऐसे में जब कहीं से भी प्रेम दस्तक देता है तो मन उस ओर भागता ही हैं. आप फिर सही-ग़लत नहीं होते. आप सबसे प्राकृतिक चीज़ को जीने की कोशिश कर रहें होते. तो ये कोई पाप नहीं होता.
बस प्रेम, प्रेम होता है. विवाहेत्तर-सम्बंध या एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर जैसी कोई चीज़ नहीं होती!