कौन बनेगा मसीहा इन घर में काम करने वालियों के लिए

  • Post By Admin on Jun 12 2018
कौन बनेगा मसीहा इन घर में काम करने वालियों के लिए

कभी किसी औरत को चोटिल देखिए तो ज़रूर पूछने या जानने की कोशिश कीजिए कि आख़िर उसे ये चोट लगी तो लगी कैसे और क्यूँ लगी? ख़ास कर आपके घरों में काम करने वाली बाइयों से. दो दिन से घर पर पर बाई नहीं आ रही थी. जब वो कल आयी तो चेहरा सुजा हुआ था. कुछ नीला दाग गर्दन के आस-पास दिखा. बात समझ में आ गयी थी फिर भी उसी से पूछना जरुरी लगा. चाय का कप थमाते हुए पूछा, "चोट कैसे लगी? पति ने फिर से मारा पैसों के लिए क्या?"

जवाब देने से पहले वो चुप हो कर चाय पीती रही. नज़रें उसकी शून्य में शायद शब्द तलाश रहे थे. थोड़ी देर बाद आप ही बोल पड़ी, "दीदी नशा करके ज़बरदस्ती मेरे पास आया. मैंने मना किया तो पीटना चालू कर दिया. बच्चे भी डर कर रोने लगे. मैं क्या करूँ दीदी?"

थोड़ी देर की ख़ामोशी और फ़िर बताने लगी,"दीदी आप ही देखो अभी पिछले महीने ही बच्चा गिराया है. फ़िर से एक और बार नहीं अबॉर्शन करवाना है मुझे. इतना ख़ून जाता है कि क्या बताऊँ दीदी."

बात ख़त्म करते हुए वो कप उठा कर वो किचन में चली गयी. नल चलने की आवाज़ फ़िर से मेरे कानों में पड़ने लगी मगर दिमाग़ में अब भी उसकी बातें ही घूम रही थी.

जब भी शादी में कंसेंट की बात या औरतों की आर्थिक-स्वतंत्रता की बात लिखी जाती है या उठाई जाती है, तो उसमें इन महिलाओं का ज़िक्र न के बराबर होता है. ये हाशिय पर जी रही वो स्त्रियाँ हैं जिनका जीना-मरना किसी के लिए मायने नहीं रखता है.

ये छोटे-छोटे गाँव क़स्बों से ब्याह कर आँखों में सुखमय ज़िंदगी का ख़्वाब लिए अपने पति के साथ इन बड़े शहरों में आती हैं.  जहाँ उन सपनों की क्या ही बात करें एक ढंग की ज़िंदगी भी इन्हें मयस्सर नहीं होती.

शहर में जीने के लिए ज़्यादा पैसों की दरकार होती है. कई बार पतियों को नशे की आदत लग जाती है. ऐसे में घर चलाने की ज़िम्मेदारी से लेकर बच्चों की परवरिश तक का बोझ इनके कंधो पर आ जाता है. ये ज़्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं होती तो ऐसे में इनके सामने एक ही काम बचता है, " मेड बन जाना", "काम वाली बाई या मौसी" बन जाना तमाम उम्र के लिए.  ये बेचारी औरतें रोज़ सुबह अपने घर का काम निपटा कर लोगों घरों में काम करने के लिए निकल पड़ती हैं. जिससे जितना अधिक काम हो पाए उतना करती हैं. कुछ मेड्स कई घरों में काम करती हैं, तो कुछ एक ही घर में सुबह से रात तक. कुछ घर का काम करती हैं तो कुछ बच्चों को संभालने का और जब ये दो वक़्त की रोटी जुटाने के लिए किसी और का घर सँवार रही होती हैं, किसी और के बच्चों को गोद सुला रही होती हैं उस वक़्त इनके अपने बच्चें इधर-उधर भटक रहे होते हैं.

इनके लिए न तो कोई छुट्टी का दिन मुकर्रर होता है नही बाकि के कामगारों की तरह इन्हें सीक लीव मिलता है. जो बीमार पड़ जाएँ और काम पर न जा पाएं तो उसके पैसे भी काट लिए जाते हैं. ऊपर से विडंबना ये है कि इनके काम की न तो बाहर कोई क़द्र है और नहीं इनके अपने घर में.

औसतन ये काम वाली बाई महीने के 6000 से ले कर 10000 तक कमा लेती हैं. लेकिन इनकी कमाई पर इनका कितना हक़ होता है ये कह पाना मुश्किल है. इनमें से कुछ मेड्स से बात करने पर पता चलता है कि इनका कमाया हुआ पैसा उनसे उनके पति ले लेते हैं. कइयों के पतियों को नशे की भी लत होती है तो वो अपनी कमाई के साथ इनके कमाई का भी एक बड़ा हिस्सा उसी में उड़ा देते हैं. 

चूँकि ये काम वाली बाई होती हैं ये 'कामगारों' की सूची में भी नहीं आती। इनके हक़ के लिए कोई अलग से क़ानून भी नहीं हैं। इनके साथ रोज़ ज़्यादतियां होती ही रहती हैं, हाँ ये और बात है की उनका ज़िक्र नहीं होता बारहा. जब भी बारबरी का हक़, अपने कमाए पैसों को अपनी जरूरतों के हिसाब से खर्चने का हक़, फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बात आती हैं, तो ये बेचारी महिलाएं गौण हो जाती हैं. इन पर न तो कोई बात करता है और नहीं इनके लिए कोई स्टैंड लेता है.

ये किस्सा अकेली किसी एक बाई/कामवाली की कहानी नहीं है. ये लोगों के घरों में काम करने वाली उन अधिकांश नौकरानियों की कहानी है.

अपने घर के अलावा इनका शोषण इनके कार्य-स्थल पर भी होता है. मिडिया में कभी-कभार ये खबरें हमें सुनाई दे जाती हैं. जैसे, मध्यप्रदेश के पूर्व विधायक राजा भैया (वीर विक्रम सिंह) और उनकी पत्नी आशारानी सिंह को अपनी घरेलू नौकरानी तिजी बाई को आत्महत्या के लिए उकसाया था या फिर कॉरपोरेट जगत की वंदना धीर अपनी नौकरानी किशोरी को आधा नंगा रखती थी ताकि वह भाग न जाये, उसके शरीर पर चाकू और कुत्ते के दांत से काटने के जख्म के कई निशान भी थे.

ऐसे कई उदाहरण और भी आपको मिल जायेंगे जानी-मानी पत्रकार और सोशल एक्टविस्ट 'तृप्ति लहरी' की किताब "Maid In India" में. यह नॉन-फ़िक्शन किताब है, जिसमें उन्होंने ने मेड्स की ज़िंदगी के अनछुए पहलु को सामने रखा है. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि जहाँ 740,000 मेड्स थी 1991 में वही 2001 के आते-आते ये संख्या बढ़ कर 16.2 लाख हो गयी है. अब आप इसी आंकड़े से अंदाज़ा लगाइये कि आज देश में इन मेड्स या नौकरानियों कि कितनी संख्या होगी और इनकी कितनी कहानियां होंगी?

ये महज़ बानगी भर है। ऐसे हज़ारों किस्सों से ये देश भरा हुआ होगा. विडंबना कह लीजिये या दुर्भाग्य न तो इन मेड्स के लिए कोई अलग से ठोस कानून बनें हैं और नहीं कोई संस्था है जो इनके लिए लड़ सके. हाँ कई NGO हैं जो इनके समस्याओं के लिए लड़ रही हैं मगर उनकी भी संख्या काफी कम है. 2008 में सामाजिक सुरक्षा क़ानून के नाम से एक विधेयक बना था मगर उसमें भी इन महिलाओं के अधिकारों के ऊपर से कोई ज्यादा ज़ोर नहीं दिया गया.

तो ऐसे में अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर किये जा रहे आयोजनों और सोशल मिडिया पर फैलाई जा रही क्रांति का क्या फ़ायदा कि जो पिछड़ा है, हाशिए पर जी रहा है उसे ही कोई लाभ न मिलें. सुखद और सफल तो ये दिन मानना तब होता जब इनके उत्थान के लिए भी कुछ सोचा जाता या किया जाता. सिर्फ सोशल मिडिया पर लिखने और हक़ के लिए बहस करने से कुछ नहीं होने वाला.

एक दिन में तो बदवाल संभव नहीं है मगर अपने स्तर पर जो हमारे घरों में जो मेड्स काम करने आती हैं, उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बता कर उन्हें जागरूक करें. उन्हें 'वीमेन-हेल्प लाइन' जैसे नंबर और अन्य NGO के बारे में बताएं जो उनके लिए काम कर रही हैं. उनसे बातें करें। उनकी समस्या को सुनें और जरूरत पड़ने पर उनकी मदद भी करें. हर एक इंडीविजुल की पहल का असर जरूर पड़ेगा. ये महिलाएं भी हमारे समाज का एक हिस्सा हैं, ये सशक्त होंगी तो हमारा समाज भी मजबूत होगा.

 

~ अनु रॉय