गाली देती हुई लड़कियाँ, समाज के बनाए खोखले नियमों को तोड़ती लड़कियाँ कब पसंद आयी हैं ज़माने को

  • Post By Admin on Jun 10 2018
गाली देती हुई लड़कियाँ, समाज के बनाए खोखले नियमों को तोड़ती लड़कियाँ कब पसंद आयी हैं ज़माने को

आपकी आज़ादी और फ़ेमिनिज़्म ये दोनों अलहदा बातें हैं.

और ‘वीरे दी वेडिंग’ उन चार लड़कियों की पसंद, उनकी आज़ादी उनके पर्सनल स्पेस की कहानी है न कि फ़ेमिनिज़्म की वकालत करती कोई डॉक्युमेंट्री.

रिव्यू से पहले ये डिस्क्लेमर देना ज़रूरी है. 

हाँ, तो अब आते हैं फ़िल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ पर. यह फ़िल्म है उन चार लड़कियों की जो ज़िंदगी को अपने टर्म और कंडिशन पर जीना चाहती हैं. ज़िंदगी में ग़लतियाँ करती हैं और उन ग़लतियों को सुधारने की कोशिश भी करती हैं. ये लड़कियाँ हिम्मत से भरी हुई हैं. ये अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाती हैं तो साथ में मन की आवाज़ को भी सुनती हैं.

फ़िल्म शुरू होती है कालिन्दी की शादी से. जो शादी और उनसे जुड़े रिश्तों में बँधने से डरती है क्यूँकि उसके माँ-बाप शादी सफल नहीं होती. उसने परिवार को बिखरते देखा है. टूटते रिश्तों का दर्द देखा है मगर फिर भी वो शादी के लिए हाँ कर देती है और इस शादी के लिए चारों सहेलियाँ इकट्ठा होती हैं. शादी के रस्मों को निभाते हुए उसके मन का डर हक़ीक़त में सामने आ जाता है और वो शादी छोड़ कर भाग जाती है. 

इस शादी के दौरान बाक़ी के तीन सहेलियों की भी कहानी सामने आती है. 

एक सहेली की शादी टूटने के कगार पर है क्यूँकि उसका पति बाक़ी अधिकांश पतियों की तरह ही उसे ट्रीट करता है. मतलब कि उसे घर भी चकाचक चाहिए. बीवी बेस्ट शेफ़ चाहिए. इसके अलावा बीवी जॉब भी करे और घर में पार्टी हो तो पार्टी की सारी तैयारियों के बाद मॉडल की तरह सज-धज कर सामने आए. लड़की को यह गँवारा नहीं होता और वो पति को छोड़ कर घर वापिस आ जाती है.

दूसरी की कहानी भी कुछ अलग नहीं है. पढ़ाई ख़त्म हो चुकी है. नौकरी कर रही है और माँ तमाम हथकंडे अपना रही कि उम्र निकलने से पहले बेटी का ब्याह हो जाए.

इन सबकी कहानियाँ आपको अपने आस-पास की कहानियाँ लगेंगी. इनका स्ट्रगल आपको अपना स्ट्रगल लगेगा. ये लड़कियाँ भी हमारी आपकी तरह फ़्रस्ट्रेट हो कर कभी पर्दे में तो कभी पर्दे के सामने गालियाँ देती नज़र आएँगी. 

इनमें से एक लड़की अपने मोटापे को ले कर परेशान है तो एक को सोसायटी ताने मार कर परेशान कर रहा कि उसका तलाक़ क्यूँ होने वाला है. फ़िल्म में कुछ भी अलग या नया नहीं है जिसके लिए आपको सदमा या झटका लगे.

हाँ फ़िल्म की कहानी को जिस तरह से निर्देशक शशांक घोष ने ट्रीट किया है वो क़ाबिले-तारीफ़ है. पुरानी कहानी को जिस नए फ़्लेवर में प्रस्तुत किया है वो भी सुंदर है.

फ़िल्म के किरदार ख़ूबसूरती से बुने गये हैं. सोनम कपूर जहाँ एक सुलझी वक़ील की भूमिका को बख़ूबी निभाती नज़र आयी हैं, वही स्वरा भास्कर एक फ़्रस्ट्रेटेड वाइफ़ को भरपूर जीने की कोशिश की हैं. अपना फ़्रस्ट्रेशन वो गालियों और एक बार मास्टरबेट करके निकालती नज़र आती हैं. करीना कपूर के लिए ज़्यादा कुछ था नहीं फ़िल्म में. बाक़ी के किरदार भी सहज नज़र आए हैं.

गीत-संगीत तो आजकल की बाक़ी फ़िल्मों की तरह ही उबाऊ हैं. सिन्मेटोग्राफ़ी और बैक्ग्राउंड स्कोर भी प्रभावी नहीं हैं. फूकेट को और भी ख़ूबसूरत तरीक़े से दिखाया जा सकता था मगर उसे बस स्ट्रीपर शो तक ही रिया कपूर रख पायीं मगर फिर भी शशांक घोष एक डाईरेक्टर के तौर पर उम्मीद जगाते हैं.

आख़िर में सबसे अहम बात यह विशुद्ध मनोरंजक और व्यवसायिक फ़िल्म है. इसके ज़रिए समाज को कोई ग़लत या फिर सही सीख देने की कोशिश नहीं की गयी है और न हीं ये फ़िल्म फ़ेमिनिज़म की वकालत कर रही है. यह एक अडल्ट कॉमडी है जिसे एक बार ज़रूर देखा जा सकता है.

जो लोग इस फ़िल्म का विरोध या इस फ़िल्म को फ़ेमिनिज़म से जोड़ कर देख रहें हैं उन्हें सिरे से फ़ेमिनिज्म को समझने की दरकार है.