शिक्षकों पर चादरपोशी
- Post By Admin on Sep 04 2024
आज सवेरे-सवेरे श्रीमती जी ने एक प्रश्न प्रक्षेपित कर दिया -‘सुना है शिक्षक दिवस के दिन आप सभी शिक्षक सरकार के द्वारा सम्मानित किए जाएंगे ? ‘ उनके द्वारा प्रक्षेपित प्रश्न की चिकनी ‘काई’ पर वेतन विहीन इस व्यथित मास्टर का मन फिसलते -फिसलते बचा ! मैंने उनकी इस जासूसी पर मुग्ध होते हुए प्रतिप्रश्न किया -‘किसने कहा ?’ वह तमककर बोली -‘आपको क्या लगता है , आप न बतलाएंगे तो मुझे मालूम न होगा ? आपको मेरी कोई फिक्र नहीं रहती , लेकिन मैं तो हमेशा आपकी चिंता करती रहती हूं । आपकी हर बात की खबर रखती हूं कि कहां जाते हैं, क्या करते हैं और क्या-क्या नहीं कर पाते ! ” उनकी इस फिक्रमंदी की हुनर को दाद देता हुआ मैंने पुनः अपने प्रश्न की पुनरावृत्ति की -” आखिर पता कैसे चला ? ”
“पठकाइन बोल रही थी !”
“वह और क्या - क्या कह रही थी ?”
” यही कि सरकार शिक्षक-दिवस के पावन अवसर पर आप सभी शिक्षकों पर चादर-वादर चढ़ाकर सम्मानित करेगी !”
उनके इस वाक्य -विन्यास ने मुझे मथ डाला ।
ऐसा लग रहा था कि वाग्देवी सरस्वती साक्षात दुर्गा की जिह्वा पर विराजमान होकर , राष्ट्र के भविष्य निर्माताओं का भविष्य बांच रही हों ! परिदृश्य भी कुछ उसी तरह का हाल बयां कर रहा था, जिसमें लोग 364 दिन तो बड़े कौतूहल से सांप को मारते हैं , और नागपंचमी के दिन ढूंढ-ढूंढ कर उसे दूध पिलाने का पुण्य परोसते हैं। अनजाने ही सही , वर्षों बाद वह सूत्रवाक्य में राष्ट्र के भविष्य निर्माताओं की कुंडली कह गयीं !
साल भर दिहाड़ी मजदूर की तरह खाली पेट एड़ियां रगड़ने वाले एवं अपने बच्चे , परिवार और खुद के अंधकारमय भविष्य से चिंतित-व्यथित राष्ट्रनिर्माता शिक्षकों को 365 वें दिन का यह सम्मान, किसी मजार की चादरपोशी से अधिक कुछ भी तो नहीं ! जो राष्ट्र के बेरंग भविष्य में रंग भरते- भरते अपने अंधकारमय भविष्य में एक लौ भी नहीं जला पाते … जो अपने उचित पारिश्रमिक , वेतनमान , मान सम्मान और बुढ़ापे का एकमात्र सहारा पुरानी पेंशन की कल्पना तो कर सकते हैं , मगर उन्हें मिलेगी वही , जो किसी काम की नहीं !..और यदि भूलवश यह सब मांग कर दी तो पीठ पर लाठियां चटकने की अनुगूंज राष्ट्र-शिक्षक चाणक्य काल की याद तरोताजा कर देती । कभी इसी धरा पर चाणक्य की चोटी पकड़कर उन्हें बेआबरू करते हुए घसीटा गया था । तब जो घसीटा-घसीटी की प्रक्रिया शुरू हुई थी , वह बदस्तूर अब तक जारी है । तब प्रश्न राष्ट्र का था , अब राष्ट्र-निर्माताओं का है । दोनों सिचुएशन में अधिक अंतर नहीं , अंतर है तो वक्त का , किरदार का… !
इस घसीटा-घसीटी त्रासदी को देखकर तमिलनाडू के तिरूतनी के दिव्याकाश से भारतीय दर्शन , राजनीति एवं शिक्षा के सूर्यपिंड सर्वपल्ली राधाकृष्णन की आत्मा कितनी बेचैन हो रही होगी , यह तो वही जानें , लेकिन मेरे मानस पटल की कलरफूल वेतनमानी स्क्रीन पर उन आधुनिक श्रवणकुमारों का सीन प्ले होने लगा जो जीवन भर तो अपने मां-बाप को एक ग्लास पानी नहीं देते लेकिन उनके सुरलोक सिधार जाने के बाद अपनी छाती पीट-पीटकर रोते हैं। दान पुण्य करते हैं। बीच में मजार पर की जाने वाली चादरपोशी भी अनचाहे विज्ञापन की तरह अपनी अनैच्छिक उपस्थिति दर्ज करा जाती।
ऐसा लग रहा था मानो शिक्षक दिवस मात्र चादरपोशी दिवस हो ! हम शिक्षकों के प्रति राजा जी का यह छलकता हुआ प्रेम मन के किसी कोने में भय उत्पन्न करने की कुचेष्टा कर रहा था । प्रेम की यह एक अलग ही श्रेणी है , जिसके निष्प्राण पाषाण -पुंज से भय की निर्झरिणी झरती है। इसी तरल-तत्व का पान कर 364 दिन धधकती हुई जठराग्नि में तपती हुई पीठ और वेदना-वेष्ठित आत्मा पर चटकायी गयी लाठियों को भूल , अगली चादरपोशी तक की जलालत , भूख और अंधकार को झेलने का साहस बटोरते हुए , ऊसर एवं दिशाहीन राजनीति-राष्ट्रनीति की बंजर भूमि में रोटियों के सपने बोते हैं । खुली आंखों से नंग-धरंग राजनीति की बेहयायी देखते हैं ।
देखते हैं कि किस तरह मात्र शपथ लेने भर से सांसद-विधायक पुरानी पेंशन व बेतहाशा सुख सुविधाओं का हकदार बन जाते हैं और इधर 60-65 बरस राष्ट्रनिर्माण में संलग्न , अनगढ़ पत्थरों को तराशने वाले , बेतरतीब माटी से मूरतें बनाने वाले राष्ट्रशिल्पी चाणक्यों को त्रासदीपूर्ण पुरानी पेंशन विहीन बुढ़ापा …जो उसकी बाट जोहते- जोहते भरी जवानी में ही बुढ़ापे को न्योता दे चुके होते हैं और जो माननीयों के अस्सी वर्षीय चेहरे की तरुणाई व उसकी लाली पर मौन व्यंग्य कस रहे होते हैं । खैर ! तब तक श्रीमती जी तुलसी की गुड़ वाली चाय सामने रख चुकी थी । मैं उसे पीकर आष्ट्रियन शिक्षा शास्त्री ईवान इलीच को पढ़ने लगा –“यह कैसी विडंबना है कि छात्रों के प्रति शिक्षकों के असीमित दायित्व हों , मगर छात्रों , अभिभावकों , समाज और सरकार का उसके प्रति कोई दायित्व नहीं हो ।…शिक्षकों को हमेशा हमदर्दी और जिम्मेदारी के साथ तैयार रहना चाहिए मगर वह किसी से कोई अपेक्षा न करे ..।
डॉ. सुधांशु कुमार