मुंबई की सड़कों से संसद तक, संघर्ष के मिसाल थे जॉर्ज

  • Post By Admin on Jan 29 2025
मुंबई की सड़कों से संसद तक, संघर्ष के मिसाल थे जॉर्ज

29 जनवरी 2019 को दुनिया को अलविदा कहने वाले जॉर्ज फर्नांडिस भारतीय राजनीति में संघर्ष और विद्रोह का प्रतीक माने जाते हैं। मजदूर नेता से लेकर केंद्रीय मंत्री तक का उनका सफर साहस, प्रतिबद्धता और बगावती तेवरों से भरा था। चाहे 1967 में दक्षिण मुंबई से दिग्गज कांग्रेस नेता एस.के. पाटिल को हराकर ‘जाइंट किलर’ का तमगा हासिल करना हो। 1974 की ऐतिहासिक रेल हड़ताल की अगुवाई करनी हो या फिर 1975 की इमरजेंसी के दौरान सरकार के खिलाफ भूमिगत रहते हुए संघर्ष छेड़ना, जॉर्ज ने हमेशा सत्ता के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की।

मुंबई की सड़कों से राजनीति के मंच तक

1949 में जब 19 वर्षीय जॉर्ज फर्नांडिस मुंबई पहुंचे तब उनके पास सिर छिपाने की भी जगह नहीं थी। फुटपाथ पर कई रातें गुजारनी पड़ीं, लेकिन उनके इरादे बुलंद थे। एक अखबार में प्रूफरीडर की नौकरी से शुरुआत की। फिर ट्रेड यूनियन आंदोलन में कूद पड़े। छोटे-मोटे कामगारों से जुड़कर उनके अधिकारों के लिए संघर्ष किया और जल्द ही वे मुंबई के सबसे प्रभावशाली मजदूर नेताओं में शुमार हो गए। 1961 में वे मुंबई म्युनिसिपल काउंसिल के सदस्य चुने गए और 1967 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के कद्दावर नेता एस.के. पाटिल को हराकर पूरे देश में चर्चा का विषय बन गए।

भगवान भी मुझे नहीं हरा सकता —पाटिल की चुनौती और जॉर्ज की जीत

1967 के लोकसभा चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने जॉर्ज को दक्षिण मुंबई से टिकट दिया। उनके सामने कांग्रेस के एस.के. पाटिल थे, जिन्हें ‘मुंबई का बेताज बादशाह’ कहा जाता था। जब एक पत्रकार ने पाटिल से पूछा कि जॉर्ज फर्नांडिस उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं, तो उन्होंने घमंड में कहा, "भगवान भी मुझे नहीं हरा सकता।"

यह बयान अखबारों की सुर्खियां बन गया। अगले ही दिन पूरे मुंबई में जॉर्ज के पोस्टर लगे जिन पर लिखा था, "पाटिल कहते हैं कि उन्हें भगवान भी नहीं हरा सकता, लेकिन आप हरा सकते हैं!"

परिणाम आया और जॉर्ज ने पाटिल को 42,000 वोटों से हरा दिया। इसी के साथ वे ‘जॉर्ज द जाइंट किलर’ के नाम से मशहूर हो गए।

1974 की ऐतिहासिक रेल हड़ताल

1974 में जब जॉर्ज रेलवे मेंस फेडरेशन के अध्यक्ष थे। तब उन्होंने 20 लाख रेल कर्मचारियों की मांगों को लेकर ऐतिहासिक हड़ताल की अगुवाई की। 20 दिनों तक चली इस हड़ताल ने देशभर के 7,000 रेलवे स्टेशनों को ठप कर दिया। सरकार किसी भी हाल में झुकने को तैयार नहीं थी। नतीजतन, 30,000 से अधिक रेलकर्मियों को गिरफ्तार कर लिया गया। जॉर्ज पर भी गिरफ्तारी की तलवार लटक रही थी, लेकिन वे पीछे हटने को तैयार नहीं थे।

इमरजेंसी के ‘मोस्ट वांटेड’ नेता

25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल (इमरजेंसी) लागू कर दिया। विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हो गई। जॉर्ज को पकड़ने के लिए पुलिस और खुफिया एजेंसियां लगातार कोशिश कर रही थीं। लेकिन वे कभी साधु, कभी सरदार, तो कभी मछुआरे के वेश में भूमिगत होकर सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाते रहे।

1976 में कोलकाता के एक चर्च से उनकी गिरफ्तारी हुई। उन पर ‘डायनामाइट केस’ में राजद्रोह और देश में हिंसा भड़काने की साजिश का आरोप लगा। उनकी गिरफ्तारी से ब्रिटेन, जर्मनी और ऑस्ट्रिया जैसे देशों ने भारत सरकार पर दबाव बनाया। जॉर्ज को मारने की साजिश की खबरें उड़ीं। जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार की आलोचना हुई।

जेल से लोकसभा चुनाव जीते

जब 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद चुनाव हुए तो जॉर्ज तिहाड़ जेल में बंद थे। उन्हें बिहार के मुजफ्फरपुर से जनता पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया। चुनाव प्रचार के दौरान उनकी हथकड़ी लगी तस्वीरें पूरे देश में पोस्टरों और अखबारों में छा गईं। यह तस्वीर इमरजेंसी के दमन और अत्याचार का प्रतीक बन गई।

नतीजा यह हुआ कि जॉर्ज ने तीन लाख से ज्यादा वोटों से ऐतिहासिक जीत दर्ज की और जेल से ही सांसद बन गए। मोरारजी देसाई की सरकार में वे उद्योग मंत्री बनाए गए। उन्होंने विदेशी कंपनियों कोका-कोला और IBM के लाइसेंस रद्द कर दिए। इसके बाद वे फिर चर्चा में आ गए।

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री

1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी, तो जॉर्ज फर्नांडिस को रक्षा मंत्री बनाया गया। पोखरण परमाणु परीक्षण के दौरान वे इस पद पर थे। हमेशा से कांग्रेस को निशाने पर लेते रहे जॉर्ज को घेरने का मौका ताबूत और रक्षा सौदों में घोटाले के आरोपों के जरिए मिला. कारगिल के शहीदों के शव के लिए खरीदे गए ताबूतों को बढ़ी कीमत का मामला कैग की रिपोर्ट के जरिए सामने आया था. तहलका के स्टिंग ऑपरेशन में समता पार्टी की अध्यक्ष जया जेटली के जरिए रक्षा सौदों में दलाली के पर्दाफाश का दावा किया गया था. इन दोनों मोर्चों पर जॉर्ज का व्यापक विरोध हुआ और उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. हालांकि सी. बी.आई. जांच में उन्हें क्लीन चिट मिली.

जांच एजेंसी को उनके विरुद्ध कोई सबूत नहीं मिला. बाजपेई सरकार में मंत्री और एन.डी.ए. के संयोजक के तौर पर भाजपा से उनकी निकटता उनके पुराने साथियों के एक हिस्से को कभी रास नहीं आई.

सादगी और ईमानदारी की मिसाल

जॉर्ज हमेशा सादगी से रहते थे। वे अपने कपड़े खुद धोते थे और कभी कंघा नहीं करते थे। मंत्री के तौर पर उनके बंगले के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे. यहां तक कि एक मौके पर उन्होंने बंगले का मुख्य गेट भी उखड़वा दिया था. सुरक्षा गार्ड की वे जरूरत नहीं महसूस करते थे. संसद पर हमले के बाद प्रधानमंत्री बाजपेई के कहने पर भी वे इसके लिए राजी नहीं हुए थे. फिर जया जेटली ने उन्हें समझाया था कि फर्नांडीज का मारा जाना भले बड़ी बात न हो लेकिन वे देश के रक्षा मंत्री हैं. सुरक्षा के अभाव में अगर रक्षा मंत्री मारा जाता है तो देश का अपमान होगा. इसके बाद ही जॉर्ज एक-दो सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के लिए तैयार हुए थे.

आखिरी दौर: स्मृतिलोप और अकेलापन

जॉर्ज की शादी नेहरू सरकार में मंत्री रहे हुमायूं कबीर की बेटी लैला कबीर से हुई थी। हालांकि, वे करीब 25 साल तक अलग रहे। लेकिन अपने आखिरी दिनों में जब जॉर्ज अल्जाइमर जैसी बीमारी से जूझ रहे थे। तब लैला उनकी देखभाल के लिए वापस आ गईं।

29 जनवरी 2019 को 88 साल की उम्र में जॉर्ज इस दुनिया से चले गए। उनकी स्मृति भले ही धुंधली हो गई थी, लेकिन भारतीय राजनीति में उनका योगदान और संघर्ष हमेशा याद किए जाएंगे।