क्या सैनी से भाजपा के हित सधेगें
- Post By Admin on Mar 16 2024

अजीत द्विवेदीनायब सिंह सैनी को हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाने को भाजपा का नायाब दांव माना जा रहा है। माना जा रहा है कि एक दांव से भाजपा ने कई लक्ष्य साध लिए हैं। अब भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी खत्म हो जाएगी। किसानों की नाराजगी दूर हो जाएगी। पिछड़ी जातियों का पूरी तरह से ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में हो जाएगा और दूसरी ओर त्रिकोणात्मक लड़ाई में दुष्यंत चौटाला जाट वोटों का बंटवारा करके कांग्रेस को नुकसान पहुंचा देंगे। लेकिन क्या सचमुच ऐसा हो जाएगा? क्या राजनीति सचमुच इस तरह एकरेखीय और इतनी ही सरल होती है कि चुनाव से पहले एक चेहरा बदल देने से पूरी राजनीति बदल जाएगी? कुछ राज्यों जैसे गुजरात और उत्तराखंड में ऐसा जरूर हुई है लेकिन उन राज्यों की राजनीति और सामाजिक संरचना दोनों भिन्न थे। हरियाणा की राजनीति उनसे अलग है। उसी तरह जैसे कर्नाटक की राजनीति अलग थी और वहां चेहरा बदलने का दांव नहीं चला। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि हरियाणा में यह नायाब दांव अनिवार्य रूप से विफल ही हो जाएगा।बहरहाल, मनोहर लाल खट्टर लगातार नौ साल से अधिक समय से मुख्यमंत्री थे तो क्या चुनाव से पहले उनको बदल देने से उनकी सरकार के खिलाफ अगर कोई एंटी इन्कम्बैंसी थी तो वह खत्म हो जाएगी? ध्यान रहे पिछले 10 साल में जितने राज्यों में भाजपा की सरकार बनी और जो भी मुख्यमंत्री बना उनमें से किसी का कार्यकाल इतना लंबा नहीं रहा, जितना खट्टर का था। सो, उनके खिलाफ बाकी राज्यों से ज्यादा एंटी इन्कम्बैंसी स्वाभाविक रूप से बनी होगी। दूसरे, उनके कार्यकाल में दोनों किसान आंदोलन हुए, जिनके केंद्र में हरियाणा रहा।पहले आंदोलन के समय किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए खट्टर सरकार ने जो कार्रवाई की थी उसने किसानों को बुरी तरह से नाराज किया था। दूसरे आंदोलन में भी पंजाब और हरियाणा के खनौरी और शंभू बॉर्डर पर जिस तरह से किसानों पर आंसू गैस के गोले छोड़े गए या नकली गोलियों से फायरिंग हुई उससे किसान नाराज हैं। उनकी नाराजगी निश्चित रूप से सिर्फ मनोहर लाल से नहीं होगी।भाजपा पिछले करीब 10 साल से हरियाणा में जाट बनाम गैर जाट की राजनीति करती रही है। उसने 10 साल पहले हरियाणा सहित कई राज्यों में शक्तिशाली और सत्ता की स्वाभाविक दावेदार मानी जाने वाली जातियों को छोड़ कर दूसरी जातियों को सत्ता सौंपी।
महाराष्ट्र में गैर मराठा देवेंद्र फडऩवीस, हरियाणा में गैर जाट मनोहर लाल खट्टर और झारखंड में गैर आदिवासी रघुबर दास मुख्यमंत्री बनाए गए थे। मोटे तौर पर यह राजनीति कामयाब रही है। हालांकि महाराष्ट्र और झारखंड में लगातार दूसरी बार सरकार नहीं बनी फिर भी भाजपा अपना वोट बढ़ाने और उसे बनाए रखने में कामयाब रही।इसी राजनीति के तहत पंजाबी समुदाय के मनोहर लाल को हटा कर पिछड़ी जाति के नायब सिंह सैनी सीएम बनाए गए हैं। गैर जाट चेहरा बता कर उनको नायाब दांव की तरह पेश किया जा रहा है। यह सही है कि राज्य में एक तिहाई से ज्यादा आबादी पिछड़ी जातियों की है लेकिन क्या सैनी के नाम से सब भाजपा से जुड़ जाएंगे? दूसरा सवाल यह है कि गैर पिछड़ी जातियों का क्या होगा? क्या वे भी सैनी को नेता मान कर भाजपा के इस प्रयोग को सफल बना देंगे?यह ध्यान रखने की जरुरत है कि सैनी अगर गैर जाट चेहरा हैं तो वे गैर ब्राह्मण भी हैं, गैर दलित भी हैं, गैर गुर्जर भी हैं तो फिर ये जातियां कैसे उनके साथ जुड़ेंगी? क्या गैर जाट की भावना इतनी प्रबल है कि उसके विरोध में सारी जातियों किसी को भी नेता स्वीकार कर लेंगी? अगर बहुत सरल तरीके से यह मानें कि जिस जाति या समुदाय का व्यक्ति मुख्यमंत्री होता है उसकी जाति उसके साथ ज्यादा मजबूती से गोलबंद होती है तो फिर इसी तर्क से यह मानना होगा कि दूसरी जातियां उससे दूरी बनाएंगी।इसलिए जाति का हिसाब कभी भी इतने सरल तरीके से काम नहीं करता है। उसके साथ कुछ और फैक्टर जोडऩे होते हैं। सैनी के प्रयोग के साथ भाजपा के पक्ष में यह बात जाती है कि पहले लोकसभा का चुनाव होना है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर होना है। इसलिए लोकसभा चुनाव में बिल्कुल निचले स्तर पर जातियों का विभाजन होने की संभावना कम है। लेकिन विधानसभा चुनाव में तस्वीर पूरी तरह से बदल भी सकती है।यह बात समझने की जरुरत है कि अगर सत्ता के शीर्ष पर बैठा नेता अपनी जाति के वोट आकर्षित करता है तो उसकी वजह से दूसरी जातियों के वोटों में विकर्षण भी होता है। भाजपा का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है कि चुनाव से पहले जिसको मुख्यमंत्री बनाया जाता है चुनाव जीतने के बाद भी वही सीएम बनता है। गुजरात से उत्तराखंड तक यह बात दिखाई देती है।उत्तराखंड में तो मुख्यमंत्री रहते विधानसभा का चुनाव हारने वाले पुष्कर सिंह धामी को ही सीएम बनाया गया था। इस हिसाब से हरियाणा के मतदाताओं में यह मैसेज अपने आप जाएगा कि भाजपा जीतेगी तो फिर सैनी ही मुख्यमंत्री बनेंगे। यह मैसेज विधानसभा चुनाव में कई जातियों को भाजपा से दूर भी कर सकता है। ध्यान रहे जमीनी स्तर पर जातियों की गोलबंदी हमेशा एक जैसे अंदाज में काम नहीं करती है।यह मानना भी पूरी तरह से ठीक नहीं होगा कि दुष्यंत चौटाला को अब भाजपा ने अपने से दूर कर दिया तो वे अलग लड़ कर जाट वोटों का बंटवारा कर देंगे, जो अभी लगभग पूरी तरह से कांग्रेस के पक्ष में दिखाई दे रहा है। कांग्रेस ने प्रदेश की कमान पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा को सौंपी है। वे 10 साल तक हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जाट उनके साथ एकजुट हुए थे, जिससे कांग्रेस को 30 सीटें मिलीं। उस चुनाव में दुष्यंत चौटाला की नई बनी जननायक जनता पार्टी को 10 सीटें मिली थीं। चुनाव के बाद एक समय ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस और चौटाला की पार्टी मिल कर सरकार बना सकते हैं।लेकिन भाजपा को केंद्र और राज्य की सत्ता में होने का लाभ मिला और उसने चौटाला के साथ मिल कर सरकार बना ली। चौटाला चार साल से ज्यादा समय तक कई महत्वपूर्ण मंत्रालय लेकर उप मुख्यमंत्री बने रहे। इसलिए अचानक अलग होकर वे भाजपा विरोधी राजनीति करते हैं तब भी भाजपा विरोधी नेता की उनकी साख नहीं बनेगी। सो, उनके जरिए जाट वोटों का बंटवारा हो ऐसा भाजपा की सदिच्छा हो सकती है लेकिन यह इच्छा पूरी होगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता है।सो, कह सकते हैं कि भाजपा ने एक प्रयोग किया है और कुछ नहीं करने से तो अच्छा ही होता है कुछ करना। 10 साल तक डबल इंजनÓ की सरकार के बाद मनोहर लाल के चेहरे पर ही चुनाव लडऩा अच्छी रणनीति नहीं होती। फिर भी उनको हटा देने से भाजपा राज के खिलाफ अगर एंटी इन्कम्बैंसी है तो वह पूरी तरह से खत्म नहीं होगी। मतदाताओं की याद्दाश्त कमजोर होती है लेकिन इतनी भी कमजोर नहीं होती। दूसरे, चुनाव कोई बिजली के स्विचबोर्ड जैसी चीज नहीं है कि एक स्विच ऑन-ऑफ करने से मतदाताओं का दिमाग बदल जाएगा।तीसरे, जातियों का गणित एकरेखीय नहीं होता है, जातियों की गोलबंदी कई तरह से होती है। चौथे, लगातार दूसरी बार खट्टर की तरह निराकार चेहरे को मुख्यमंत्री बनाने से पार्टी के अंदर स्वाभाविक नाराजगी होगी। पांचवें, चुनाव से पहले बदलाव से मतदाताओं में मैसेज बनेगा कि खट्टर काम नहीं कर सके या विफल हुए। सो, सिर्फ नया दांव चलना पर्याप्त नहीं है। उसको कामयाब बनाने के लिए भाजपा को कुछ नए फैक्टर जोडऩे होंगे।