परिधि से बाहर : डॉ. संजय पंकज

  • Post By Admin on Mar 18 2018
परिधि से बाहर : डॉ. संजय पंकज

नदी का सतत प्रवाह

कलकल छलछल करती

उछलती मचलती लहरें

जिसे चूमने उतरती हैं

सूरज की बेटियाँ

बहनों के संग आ जाती हैं

नृत्य करती हवाएं

सर्दी के दिनों में

नदी की कोख में

जा समाती है आग

और इन सबको

अपनी छाती में संभाले पृथ्वी

कभी इतराती नहीं

और अपनी नित्य सखी

प्रकृति से गलबहियाँ करती

पर्वत से सागर तक

नदी को बहने देती है अनवरत

पृथ्वी जानती है

कि प्रकृति पुरुष में

तो वह आकाश में अंतर्लीन है

ठीक वैसे ही सागर में

मिल जाती है नदी

दिन मास में,मास महीने में

मास वर्ष में और वर्ष सदी में

युगों से विलीन हो रहे हैं

यह एक निरंतर और शाश्वत यात्रा

शून्य के वृत्त में महाकाल का

अनीह नृत्य है

जो आत्मा परमात्मा के अटूट ,

अछोर और असीम संबंध को

लय -प्रलय में आनंदबद्ध करता है ।

                                                             @डॉ. संजय पंकज