हरिशंकर परसाई जयंती पर विशेष 

  • Post By Admin on Aug 23 2024
हरिशंकर परसाई जयंती पर विशेष 

शिक्षकों की कई श्रेणियों में एक 'लोक शिक्षक' की है, जिसमें तमाम श्रेणियां पर्यवसित हो जाती है । इसका संबंध किसी 'पद' से नहीं बल्कि समाज व राष्ट्र के प्राण से है , प्राणवायु से है ! लोक शिक्षक की सेवा का मूल्यांकन घंटों से नहीं बल्कि सुप्त जनचेतना की जागृति के परिमाण से किया जाता है । हिंदी व्यंग्याकाश के सूर्यपिंड हरिशंकर परसाई के भीतर के शिक्षक ने जब विस्तार पाते हुए व्यष्टिगत आवरण का परित्याग किया तो वे लोक शिक्षक के रूप में नौकरी छोड़कर  स्वतंत्र रूप से रूढ़िवादी एवं जड़ जनचेतना को झंकृत करने के साथ- साथ पथभ्रष्ट राजनीति एवं दिशाहीन समाज को आइना दिखाते हुए उस पर वह कबीर की तरह चोट करने वाले ऐसे लेखक बन गए जिन्होंने सर्वप्रथम व्यंग्य को विधा के पद पर आसीन किया । 

जिस वक्त हरिशंकर परसाई का हिंदी साहित्य की दुनिया में आगमन हुआ , वह वक्त नई कहानी का था ।  तमाम तरह के मूल्य ध्वस्त हो रहे थे , नवीन मूल्यों का अता - पता न था । साहित्य के सामने नवीन मूल्यों की स्थापना की बड़ी चुनौती थी जिसे उन्होंने स्वीकार करते हुए अथक रूप से व्यंग्य को उसका माध्यम बनाकर रूसो की 'नकारात्मक शिक्षा' के सिद्धांत को केन्द्र में रखते हुए अपने लोक शिक्षक के धर्म का आजीवन पालन किया । उनके विराट और निर्भीक व्यक्तित्व का परिचय इसी से मिलता है कि वह ताउम्र किसी भी प्रकार की राजनीतिक शक्तियों के दबाव में नहीं आए बल्कि कांग्रेस सहित तमाम पक्ष- विपक्ष पार्टियों के निशाने पर वह आ गए और तमाम पार्टियां उनके निशाने पर रहती थीं , 'सज्जन, दुर्जन और कांग्रेस जन' नामक व्यंग्य की तीक्ष्णता में इसे देखा जा सकता है । इस रचना की शुरुआत में ही वह लिखते हैं - " आदमी तीन तरह के होते हैं - सज्जन ,दुर्जन और कांग्रेसजन । हार के बाद सज्जन अपने को देखता है ,दुर्जन दूसरे को और कांग्रेसजन कभी अपने को , कभी दूसरे को......। आगे वह लिखते हैं - " कांग्रेस के विरोध का मूल कारण यह है कि कुछ वयोवृद्ध कांग्रेसी बेरोजगारी की समस्या से पीड़ित हैं , जैसे राजाजी ...!" इस 'राजाजी' शब्द में हजार शब्दों के बराबर की शिक्षा व्यंजित होती है  कि आज भी हमारे लोकतंत्र के आवरण में राजतंत्र ही छिपा बैठा है ।  ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस ही इनके निशाने पर रहते थे , जनसंघी व अन्य पार्टियां भी उनसे समान रूप से भयाक्रांत रहा करती थीं । शायद इसीलिए हिंदी साहित्य के व्यंग्याकाश के सर्वाधिक देदीप्यमान नक्षत्र के रूप में वह  स्थापित हैं । 

हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य से अलग कुछ नहीं लिखा। निबंध , कहानी , संस्मरण, रिपोर्ताज, उपन्यास आदि सब इन्होंने व्यंग्य विधा में ही लिखा। वैष्णव की फिसलन, सदाचार की ताबीज, विकलांग श्रद्धा का दौर, भोलाराम का जीव , रानी नागफनी की कहानी, भेड़ और भेडिए, तटस्थ, एक मध्यवर्गीय कुत्ता, दल बदलनेवाला, रीसर्च का चक्कर , सड़े आलू का विद्रोह जैसी सैकड़ों रचनाएं ऐसी हैं , जो समाज की रूढ़िवादी दिशाहीन विकृत सोच पर चोट करती हुए उन्हें एक कुशल और जिम्मेदार लोक शिक्षक की तरह अनुशासित करती हैं। 

आज जिस प्रकार दल बदलना एक फैशन- सा हो गया है उस पर परसाई ने जो व्यंग्य कसते हुए "दल बदलनेवाला" रचना में लिखा है -" कभी ऐसा मौसम आता है कि न जाने कितने परतों के नीचे दबा ईमान सहसा सिर तानकर खड़ा हो जाता है। मौसम की बात है -पतंगा और ईमान एक -से भिन्नाने लगते हैं । परसाई के गांव के एक कांग्रेसी 'हरचरन' ने उनसे पार्टी छोड़ने का वक्तव्य लिखवाने आया !  इस पर लेखक ने जब कांग्रेस छोडने का वक्तव्य लिखवाने का कारण पूछा तो उसने कहा - मेरी आत्मा से ऐसी पुकार उठ रही है। कांग्रेस पूज्य बापू के सिद्धांतों की हत्या कर रही है । कांग्रेस प्रजातंत्र के सिद्धांतों की रक्षा नहीं कर सकती। मैं सिद्धांतवादी आदमी हो, तुम तो जानते हो। " इस पर लेखक लिखता है कि ' मुझे सपने में भी कल्पना नहीं थी कि हरचरन के मुंह से 'आत्मा' 'सिद्धांत' ' प्रजातंत्र ' जैसे शब्द सुनूंगा। अभी न जाने कितने बुरे दिन देखने बाकी हैं । " इसके बाद भी इसी तरह हरचरन कई बार दल बदलने का वक्तव्य लेखक से लिखवाया। यह आज के दलबदलू अपसंस्कृति पर गहरी चोट है कि नेता किस प्रकार सिद्धांतो व नैतिकता की ओट में छिप कर उसी को तार तार करते हैं । जनता जिसके विरोध में वोट करे कल होकर उन्हीं की गोद में नेता दलबदल कर बैठ जाते हैं!!

दरअसल व्यंग्य यथार्थ को अभिव्यक्त करने का एक ऐसा ढंग है जिससे उसमें निहित अंतर्विरोधों को, विषमता को, विडंबना को, सामाजिक राजनीतिक विसंगतियों को व्यंग्य के माध्यम से उभारा जा सकता है । चूंकि हरिशंकर परसाई से पूर्व व्यंग्य को हास्य के माध्यम मात्र के रूप में कविताओं में उपयोग किया जाता था । पहली बार परसाई ने समग्रता के साथ उसे एक स्वतंत्र विधा के रूप में गद्य में सुरुचिपूर्ण ढंग से एक अलग शैली में प्रस्तुत किया जिसने प्याज के छिलके की तरह भ्रष्टाचार की परतों को परत दर परत अनावृत किया । 

अपने एक व्यंग्य 'भोलाराम के जीव' में उन्होंने सचिवालय में व्याप्त 'करप्सन' जो 'कल्चर' बन चुका है, उसका उन्होंने उद्घाटन किया है । 'भेंट' चढ़ाने की अपसंस्कृति सचिवालय में इस कदर जड़ें जमा चुकी है कि भोलाराम की जीवात्मा जो मृत्यु के उपरांत यमलोक नहीं पहुंचती है तो यमलोक में हड़कंप मच जाता है। अंततः नारद जी को उसका पता लगाने के लिए मृत्यु लोक भेजा जाता है। पूछताछ के बाद पता चलता है कि रीटायरमेंट के बाद पेंशन क्लीयर करवाने हेतु चक्कर पर चक्कर लगाते-लगाते भूख से वह मर जाता है। उसकी पत्नी की याचना पर जब नारद जी सचिवालय पहुंचते हैं तो वहां के बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला -"भोलाराम ने दरख्वास्तें तो भेजी थी, पर उनपर वजन नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड़ गई होंगी। " 
नारद ने कहा -"भई , ये बहुत से 'पेपर वेट' तो रखे है। इन्हें क्यों नहीं रख दिया।"  बाबू हंसा - "आप साधू है, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती । दरख्वास्तें पेपर वेट से नहीं दबती। खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।" और अंततः नारद जी को भोलाराम का फाइल क्लीयर करवाने के लिए अपनी वीणा देनी पड़ती है।" और जब भोलाराम की फाइल सामने आती हैं तो उसी में दर्जनों दरख्वास्तों के नीचे भोलाराम का जीव छुपा रहता है और निकलना नहीं चाहता। आज का भोलाराम तो फाइल में भी नहीं छिप सकता क्योंकि पेंशन नाम की कोई चीज ही नहीं रह गयी है। क्योंकि आज के भोलाराम की पेंशन सरकारी नीतियों की भेंट चढ़ चुकी है। यह हाल आज कमोवेश हर दफ्तर का है। कोई भी फाइल बिना पेपर वेट के आगे नहीं बढ़ती। 

इतनी बेबाकी के साथ छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी समस्याओं को जनता के सामने सहज -सरल ढंग से रखकर उनकी चेतना को झंकृत करने का काम हरिशंकर परसाई जैसे महान लोक शिक्षक ही कर सकते हैं। इस युग पुरुष लोकशिक्षक व्यंग्य शिरोमणि को उनकी जयंती के अवसर पर नमन। 

सुधांशु कुमार (लेखक व्यंग्यकार, स्तंभकार व शिक्षाविद हैं)